लोकमत पत्र समूह ने 60 लोगों को हटाया

लोकमत समाचारपत्र समूह ने नागपुर, अकोला और गोवा के अपने 60 कर्मचारियों को हटा दिया है. 21 नवंबर को तड़काफड़की में हुई इस कार्रवाई में किसी को अपनी बात रखने का मौका भी नहीं दिया गया. इसमें 10 पत्रकार भी हैं. बाकी पेजीनेशन तथा छपाई  विभाग के कर्मचारी हैं. इतना ही नहीं, लोकमत प्रबंधन ने पिछले 17 सालों से चल रहे मान्यताप्राप्त श्रमिक संगठन लोकमत श्रमिक संघटना पर भी अवैध कब्जा कर लिया है. लोकमत प्रबंधन की मांग है कि संघटना कोर्ट में जारी रीक्लासीफिकेशन, ठेका कर्मचारियों को परमानेंट करने का मामला बिना शर्त वापस ले. साथ ही संघटना ठेका कर्मचारियों से अपना नाता तोड़ ले, उनका साथ न दे और नागपुर के बाहर संघटना की शाखा न खोले.
दरअसल संघटना ने इसी साल अगस्त और सितंबर में क्रमश: अकोला और गोवा में संघटना की शाखाएं खोली थी. इसी से बौखलाए प्रबंधन ने 12 नवंबर को गोवा शाखा के अध्यक्ष मनोज इनमुलवार को आननफानन में टर्मिनेट कर दिया. इसी के विरोध में 13 और 14 नवंबर को नागपुर, अकोला और गोवा में असहयोग आंदोलन किया गया. 15 नवंबर को प्रबंधन के साथ हुई बातचीत में प्रबंधन ने उपरोक्त तीन मांगें रखीं. प्रबंधन की मांगें नहीं माने जाने पर बातचीत आगे बढ़ नहीं पाई. उसी दिन रात में नागपुर के 11 कर्मचरियों को टर्मिनेट कर दिया गया. ये कर्मचारी बूटीबोरी स्थित प्रिटिंग प्रेस के थे. 16, 17 और 18 नवंबर को दर्जनों कर्मचारियों को कारण-बताओ नोटिस जारी किया गया और जवाब देने के बावजूद 21 नवंबर को नागपुर में 36, अकोला में 13 तथा गोवा में 11  कर्मचारियों को टर्मिनेट कर दिया गया. गोवा में तो प्रबंधन ने अपना प्रिटिंग यूनिट ही बंद कर दिया है. वहां अन्य स्थानों से छपाई हो रही है. इसके बाद प्रबंधन ने भीतर रह गए कर्मचारियों को दमन और दबाव तंत्र का सहरा लेकर विभिन्न कागजों पर हस्ताक्षर करवाए, जिसमें लोकमत श्रमिक संघटना से कोई संबंध नहीं होने, आंदोलन में हिस्सा नहीं लेने जैसी बातें लिखीं गई थी.
यह विडंबना ही है कि एक तरफ तो लोकमत पत्र समूह के चेयरमैन संसद में बैठकर कानून बताते हैं और उन्हीं के बंधु महाराष्ट्र सरकार में मंत्री हैं, उन्हीं का संस्थान न सिर्फ कानून का खुलेआम मजाक उड़ाता है, बल्कि कर्मचारियों को उनकी अभिव्यक्ति, अपने अधिकारों के लिए आंदोलन करने और यूनियन बनाने जैसे कानूनी और संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल करने से रोकता भी है.
मजे की बात यह है कि लोकमत प्रबंधन ने अब तक पालेकर, बछावत और मणिसाना सिंह जैसे वेतन आयोगों को भी पूरी तरह से लागू नहीं किया है और रीक्लासीफिकेशन का केस इसी मांग को लेकर पिछले 14 सालों से औद्योगिक न्यायालय में चल रहा है. हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद प्रबंधन ने अपनी बैलेंस शीट कोर्ट में पेश नहीं की है. यह केस अपने अंतिम दौर में आ चुका है और कभी भी एकतरफा फैसला हो सकता है.
इसके साथ ही प्रबंधन ने 17 साल पुराने संगठन लोकमत श्रमिक संघटना पर भी अवैध कब्जा कर लिया. पूरी कार्यकारिणी बदल दी गई और संपादक, जनरल मैनेजर, कार्यकारी संपादक, निवासी संपादक स्तर के अधिकारियों को श्रमिक संघ का पदाधिकारी और कार्यकारिणी सदस्य बना दिया गया.