नागपुर. लोकमत
श्रमिक संघटना पर अवैध रूप से कब्जा करने वाले लोकमत समाचारपत्र समूह को
नागपुर स्थित इंडस्ट्रियल ट्राइब्यूनल ने जोर का झटका दिया है. इंडस्ट्रियल
ट्राइब्यूनल ने यूनियन पर इस कब्जे को न सिर्फ अवैध ठहराया है, बल्कि
मैनेजमेंट के पिट्टू कर्मचारियों-अफसरों की कथित कार्यकारिणी को बरखास्त भी
कर दिया है. साथ ही पुरानी कार्यकारिणी को फिर से बहाल कर दिया गया है.
याद
रहे, कोयला घोटाले से जुड़े कांग्रेस के राज्यसभा सांसद (अब सेवानिवृत्त)
विजय दर्डा के महाराष्ट्र के सबसे बड़े अखबार समूह लोकमत समाचारपत्र समूह ने
नवंबर 2013 को बिना किसी कारण के 7 पत्रकारों सहित 61 कर्मचारियों को
टर्मिनेट कर दिया था. नौकरी से हटाए गए कर्मचारी अदालत से शीघ्र राहत न पा
सकें, इसलिए लोकमत समूह टर्मिनेशन की कार्रवाई के अप्रूवल के लिए खुद कोर्ट
भी पहुंच गया. इनमें से 31 कर्मचारी अभी भी अदालत के चक्कर काट रहे हैं.
बाकी 30 कर्मचारी अस्थायी और ठेका पर कार्यरत थे, जिनका जीवन बरबाद हो गया
है. इन 61 कर्मचारियों में सभी लोकमत श्रमिक संघटना के नागपुर मुख्यालय,
अकोला और गोवा शाखा के पदाधिकारी, कार्यकारी सदस्य थे. इन कर्मचारियों का
कसूर बस इतना था कि वे अपने हकों की लड़ाई लड़ रहे थे और यही लोकमत प्रबंधन
को मंजूर नहीं था.
दरअसल, लोकमत श्रमिक संघटना ने लोकमत प्रबंधन
के खिलाफ कम से कम आधे दर्जन मामले कोर्ट में डाल रखे हैं और लोकमत
प्रबंधन चाहता था कि संगठन ये सारे मामले वापस ले ले. इसमें सबसे बड़ा मामला
ग्रेडेशन का है, जिसमें पालेकर से लेकर मणिसाना वेतन आयोग तक के मुताबिक
वास्तविक वेतन श्रेणी देने की मांग की गई है. लोकमत प्रबंधन यदि इस मामले
में हार जाता है तो उसे करोड़ों रुपयों का भुगतान कर्मचारियों को करना होगा,
बल्कि उसके टर्नओवर का भी खुलासा हो जाएगा. इसीलिए हाईकोर्ट के निर्देश के
बावजूद बरसों से लोकमत प्रबंधन ने इंडस्ट्रियल ट्राइब्यूनल में अपनी
बैलेंस शीट जमा नहीं कराई है. ये मामला पिछले 14 साल से चल रहा है. दूसरा
बड़ा मामला है ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों का. ठेके पर कार्यरत 58
कर्मचारियों को स्थायी करने की मांग को लेकर एक मामला संगठन ने अदालत में
डाल रखा है.
पूरा विवाद 12 नवंबर 2013 को तब शुरू हुआ जब लोकमत
श्रमिक संघटना की गोवा शाखा के अध्यक्ष राजेश इनमुलवार को लोकमत के समूह
कार्मिक प्रबंधक बालाजी मुले ने बिना कोई कारण बताए नौकरी से निकाल दिया.
सूचना के नागपुर पहुंचते ही लोकमत श्रमिक संघटना की नागपुर मुख्यालय शाखा
के अध्यक्ष संजय येवले पाटिल के नेतृत्व में प्रबंधन को तत्काल एक पत्र
देकर इनमुलवार के खिलाफ की गई कार्रवाई को वापस लेने की मांग की गई. मांग
पूरी नहीं होने पर आंदोलन की चेतावनी भी दी गई. हुआ वही, जो होना था.
मैनेजमेंट ने श्रमिक संगठन की मांग मानने से इनकार कर दिया. संगठन ने दूसरे
दिन यानी 13 नवंबर से असहयोग आंदोलन की घोषणा कर दी. आंदोलन 13 से 14
नवंबर तक चला. 15 नवंबर को मैनेजमेंट ने संगठन के पदाधिकारियों को बातचीत
के लिए बुलाया और यूनियन द्वारा कोर्ट में दायर सारे मामलों को वापस लेने
की शर्त रख दी. यूनियन ने शर्त मानने से मना कर दिया. हालांकि बातचीत आगे
जारी रखने की शर्त पर आंदोलन वापस ले लिया गया. लेकिन उसी दिन रात में 9
कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. दूसरे दिन बाकी लोगों को भी
कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया और 21 नवंबर को यूनियन की नागपुर, अकोला और
गोवा शाखाओं के 61 पदाधिकारियों को टर्मिनेट कर दिया गया. साथ ही यूनियन पर
कब्जा कर अपने पिट्टू कर्मचारियों को यूनियन का पदाधिकारी बना दिया गया.
इन पदाधिकारियों में संपादक, कार्यकारी संपादक, निवासी संपादक, सिटी
एडीटर, एसोसिएट एडीटर, महाप्रबंधक और प्रबंधक सहित तमाम वरिष्ठ अधिकारियों
का समावेश था. इस आपाधापी में प्रबंधन यह भी भूल गया कि लोकमत श्रमिक
संघटना के संविधान के अनुसार तो संपादक, कार्यकारी संपादक, महाप्रबंधक और
प्रबंधक स्तर के अधिकारियों को यूनियन का साधारण सदस्य भी नहीं बनाया जा
सकता. संघटना के वास्तविक पदाधिकारी इसके विरोध में माननीय औद्योगिक
न्यायालय की शरण में गए. औद्योगिक न्यायालय नागपुर ने इस कब्जे को अवैध
ठहराते हुए इस पर रोक लगा दी. प्रबंधन इसके विरोध में हाईकोर्ट से स्टे ले
आया, मगर बाद में हाईकोर्ट ने भी इस स्टे को निरस्त कर दिया और इंडस्ट्रियल
ट्राइब्यूनल को तीन माह के भीतर मामले को निपटाने का आदेश दिया. हालांकि
इंडस्ट्रियल ट्राइब्यूनल तीन माह में इस मामले को नहीं निपटा पाया और अगले
तीन माह का एक्सटेंशन लेकर 29 मार्च 2016 को लोकमत श्रमिक संघटना के हक में
ट्राइब्यूनल ने फैसला सुना दिया. इस तरह एक बार फिर लोकमत के कर्मचारियों
को उनके अपने श्रमिक संघ लोकमत श्रमिक संघटना के संचालन का अधिकार मिल गया
है. इस फैसले से जहां एक तरफ यूनियन के पदाधिकारियों और सदस्यों की एकजुटता
की जीत हुई है, वहीं इसे लोकमत की मनमानी, कर्मचारी विरोधी नीतियों और
प्रताड़ना पर विजय के रूप में भी देखा जा रहा है.
45 हजार वेतन, 50 लाख एरियर्स
याद
रहे, दर्डा बंधुओं (विजय दर्डा एवं महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री राजेंद्र
दर्डा) के हजारों करोड़ रुपए वाले महाराष्ट्र के नंबर वन समाचार पत्र समूह
लोकमत पत्र समूह को पिछले कुछ महीनों में विभिन्न अदालतों से ऐसे कई झटके
लगे हैं, मगर कर्मचारियों के साथ उनके व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया है.
अभी पिछले साल ही लोकमत के भंडारा कार्यालय में कार्यरत प्लानर महेश साकुरे
के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट से लोकमत प्रबंधन पराजित हुआ है. सुप्रीम
कोर्ट ने मजीठिया वेतन आयोग के अनुसार साकुरे को वेतन देने और 1998 से लेकर
अब तक पालेकर, बछावत, मणिसाना एवं मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के
अनुसार ब्याज के साथ एरियर्स देने का फैसला सुनाया था. इस आदेश के अनुसार
साकुरे का वेतन अब करीब रु. 45 हजार हो गया है. उन्हें एरियर्स के रूप में
करीब 50 लाख रुपए मिलेंगे. हालांकि एरियर्स के लिए साकुरे को अभी और इंतजार
करना होगा.
14 साल बाद लौटे 7 चपरासी
दो
साल पहले ही लोकमत प्रबंधन द्वारा 14 साल पूर्व नौकरी से निकाले गए 7
चपरासी भी सुप्रीम कोर्ट से जीतकर लौटे हैं. इन कर्मचारियों को नौकरी पर
वापस लेने का आदेश माननीय सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2011 में ही दे दिया था,
मगर तब प्रबंधन ने नौकरी पर वापस लेने के बाद सारे चपरासियों का चेन्नई,
दिल्ली और अन्य स्थानों पर तबादला कर दिया था. ये कर्मचारी फिर सुप्रीम
कोर्ट पहुंचे और अभी मार्च 2014 में कोर्ट ने बाकायदा उन्हें यहीं नागपुर
में ही पदस्थ करने का आदेश दिया. प्रबंधन ने अब इस आदेश की पूर्ति भी कर दी
है. अदालत ने ही पूरा हिसाब होने तक इन चपरासियों को 15 हजार रुपए प्रति
माह वेतन का भुगतान करने का आदेश भी दिया है.
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