मिडीया मुग़लों की नई सल्तनत में त्यागपत्रो का दौर

दिव्य भास्करने महाराष्ट्र के औरंगाबाद में बडे तामझाम के साथ अपना नया संस्करण शुरू तो किया, लेकीन अखबार शुरू होने के  चार-पांच महिनों के भीतर ही मिडीया मुग़लों की ईस नई सल्तनत में त्यागपत्रो का दौर चल पडा है.
दिव्य भास्करने महाराष्ट्र की पत्रकारिता में क्रांती लाने की बात की, लेकीन ऐसी क्रांती को लानेवाले प्रणेता भास्कर नहीं दे सका है. स्टेट एडिटर के तौर पर आसीन अभिलाष खांडेकर को केवल दिन काटने की पडी है, कुमार केतकर जैसे वरिय संपादक की भास्कर की इस "मदर एडीशन" में स्थानीय  तौर पर कोई भूमिका नहीं है. बाल ठाकरे के सामना से लाये गये धनंजय लांबे जैसे किं कर्तव्यविमूढ स्थानीय संपादक मातहतों को गालीगलौच के सिवाय और कुछ नहीं दे पा रहे है.
अजित वडनेरकर, जो की भाषाशास्त्री समझे जाते है ( और जिन्हे मराठी की गंध न होने पर भी "न्यूजरूम इंचार्ज" बनाया गया है) मराठी पत्रकारिता में कोई भी वास्तविक आदर्श बनाये बिना सपनों की पत्रकारिता की चाह में वृत्त संपादक, उप संपादक और अन्य कार्मिकों को देशभर से जमा किये गये कटू से कटू शब्दों में क्लास लेने के सिवाय कुछ कर नहीं पा रहे है. एक दिन बात तो इतनी बिगड गई की एक अनुवादक जैसे कनिष्ट कार्मिक ने अजित वडनेरकर की माथापच्ची से तंग आकर "तू कर के दिखा" कह डाला. ऐसे में और हो भी क्या सकता है? रोज रोज की उसी सरदर्दी से उबकर दिव्य भास्कर के साथ आये लोग निराशा हाथ लगने से अपने त्यागपत्र सौंप रहे है.
वितरण विभाग की आक्रमक मार्केटिंग के फल स्वरूप साल भर के लिये सबस्क्रिप्शन तो पा लिया, लेकीन जो वादे दिव्य भास्कर ने किये है, वो तो संपादकीय विभाग को पुरे करने है. इन वादों को पूरा कर सकनेवाली टीम अभिलाष खांडेकर नही चुन पाये है. अब हाल यह है की, स्थानीय संपादक से लेकर प्यून तक लोगों का जमावडा तो खडा हो गया लेकीन इसको ठीक से हांके कौन?अभिलाष खांडेकर अपनी कार से उतर कर केबीन में जाने तक और केबीन से निकल कर कार में घुसने तक ही कार्मिको के बीच होते है. आरई धनंजय लांबे इन दिनों उनका पुराना अखबार "सामना" में सीखी गई तिखी गालीयां बकने का अभ्यास कर रहे है. अर्थात उनको अजित वडनेरकर जैसे भाषाशास्त्री ट्यूशन न देते तो आश्चर्य था. ये भी ठीक! ऐसी बातें किसी भी संस्था मी होती रहती है. लेकीन ऐसी बाते उस संस्था में होना कतई लाजीमी नहीं है जिसे एक दुसरे राज्य में अपने संचार की नींव डालनी है. रमेशचंद्र अगरवाल, सुधीर अगरवाल और कंपनी के संचालको की खुशी के लिये एक के बाद एक संस्करण शुरू कर "ऑल इज वेल" का चित्र बनाया जा रहा है, वह केवल एक झूठ है.
महाराष्ट्र की पत्रकारिता में इतिहास में पहली बार दिव्य भास्करने इतना उंचा वेतनमान दिया. दिव्य भास्कर की पत्रकारिता से अवगत कराने के लिये मराठी पत्रकारों को दी गई ट्रेनिंग भी तीन सितारा होटल में दी. औरंगाबाद के केंद्रवर्ती रोड जालना रोड पर काफी बडा और चकाचक ऑफिस दिया गया. सबसे महत्वपूर्ण बात, वेतन समय पर और शहर के अन्य किसी भी अखबार से पहले होने लगे.इतने सारे सुख मिलने पर भी लोग दिव्य मराठी को त्यागपत्र थमा रहे है -
आखीर क्यों?
क्या किया अभिलाष खांडेकर ने महाराष्ट्र में आकर? 
इसके लिये उत्तरदायी है अभिलाष खांडेकर की वह कमी जो उन्हें गलत स्थान पर गलत व्यक्ती को चुनने के लिये मजबूर कर देती है.
१. इन जनाब ने औरंगाबाद शहर की किसी भी गली का पता न होनेवाले, पुना से आये, आईएएस पद को पाने में असफल रहे देविदास लांजेवार नामक युवा को डीएनइ बना दिया.
२. रामोजी राव के ई टीवी से आये रुपेश कलंत्री को डीबी स्टार का जिम्मा थमा दिया - इन कलंत्री साहब की करतुत सिर्फ इतनी है की इनकी शिक्षा औरंगाबाद में हुई है और चमकूगिरी में माहीर है.
३. मुंबई की निवासी मृण्मयी रानडे जो की कामुक लिखावट में ज्यादा रुची लेती है उन्हें अब "मधुरिमा" का जिम्मा सोपा जायेगा.    
४. सबसे महत्वपूर्ण नियुक्ति जिसके लिये पुरी तरह से अभिलाष खांडेकर को उत्तरदायि नहीं माना जा सकता वह है धनंजय लांबे जैसे गैर-अनुभवी और मुंहफट व्यक्ति को आरई बनाना. आंख फोड दुंगा, टांग तोड दुंगा जैसे और अन्य कई शब्द जो लिखे नहीं जा सकते  को लोगों को सुनाना इनकी विशेषता है.     
५. रही सही कसर अजित वडनेरकर के न्यूजरूम इंचार्ज बनने से पुरी हुई है. इन जनाब को मराठी तो आती नहीं, लेकीन राष्ट्रपती पुरस्कार प्राप्त भाषाशास्त्री होने से इन्हें चूप रहा भी नहीं जाता. दिव्य भास्कर के पुरे संस्करणो से खबरें चुनकर "भास्कर स्पेशल" नामक पन्ना बनाना इनकी मुख्य जिम्मेवारी है - बाकी समय में आरई धनंजय लांबे से स्तुतीसुमन लेना और अपनी आनेवाली किताबों की पंडूलीपी बनाने में गुजारते है.                           
इन सब बातों की बदौलत दिव्य मराठी को कार्मिक अलविदा कर रहे है, जिनमे अबतक शामिल है -  
१. सुशील कुलकर्णी -(डीबी स्टार थे, असल काम शुरू होने से पहले ही "पुण्यनगरी" में चले गये )
२. चंद्रकांत यादव  ( डीएनई थे, सकाळ में चले गये )
३. माधवी कुलकर्णी (उप संपादिका को यहां अनुवादक बनाया गया था, काम के बोझ से तंग आकर छोड गयी)
४. यशवंत कुलकर्णी  (अनुवादक थे, अजित वडनेरकर की भोपाली गालीगलौच को कडा जवाब देने से त्यागपत्र देने के लिये बाध्य किया गया, वेबदुनिया इंदौर को चले गये)
५. आरती जोशी ( कल्चरल खबरें देखती थी, अब सामना में जाने की खबर है)
और भी लोग छोडने की ताक में है, लेकीन उनके नाम देना सही नहीं होगा.
इन सब बातों को केवल इसलिये लिखा गया है की महाराष्ट्र में जो पत्रकारिता का नया दौर शुरू होने जा रहा था, वह चंद लोगों की नालायकी के कारण एक अव्यवस्था में बदल गया. दिव्य भास्कर प्रबंधन के धन के निवेश के बतौर जो नौटंकी चल रही है वह रुके, अब भी समय है.

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